सामाजिक >> बाबा की धरती बाबा की धरतीनरोत्तम पाण्डे
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भोजपुर के गांगेय अंचल के जीवन पर आधारित उपन्यास....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘बाबा की धरती’ एक आंचलिक उपन्यास है, जिसकी
पृष्ठभूमि है
भोजपुर का गांगेय अंचल। इसमें ग्रामांचल की सामाजिक व्यवस्था, रहन-सहन
कार्यकलाप उनके जीवन मूल्य तथा स्थानीय स्तर से लेकर ऊपर तक चलनेवाली
राजनीतिक उठा-पटक का बड़ा ही सूक्ष्म एवं मार्मिक वर्णन है। सरकारी मशीनरी
का दुरुपयोग, बल्कि हर स्तर पर भ्रष्टाचार तथा गावों की आपसी गुटबाजी के
साथ-साथ वर्तमान में समाज में आ रहे बदलाव एवं बदलते दृष्टिकोण का बेबाक
वर्णन इस उपन्यास में है। अत्यंत रोचक, मनोरंजक एवं जानकारीपरक उपन्यास।
एक
‘बाबा बरमेश्वर नाथ की जय’ जयघोष के साथ ही
कर्ण-कुहरों को
पवित्र करनेवाली घंटा-ध्वनि निनादित हुई है। निशांत की मंगल-वेला में
असंख्य जलपात्रों में लाया गया गंगाजल भगवान् शंकर पर डाल दिया गया है।
अभिषेक प्रारंभ है। गंध-पुष्पों के मृदुल-संस्पर्शों से समग्र परिवेश
पुलकित है।
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्द्धनम्
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।
भोजपुर का गांगेय अंचल-उत्तरांचल, दूर-दूर दिगंतव्यापी मेंड़-रहित खेतों
का फैलाव, ऊँची-नीची, समतल धरती की विस्तृति, पंक्तिबद्ध वृक्षों की हरी
कतारें, दूर पर शांत-एकांत दूर यतिसे खड़े एकाध पेड़ और फिर चुपचाप बहती
धर्मावती की मौन-मुखर धारा, जो आगे जाकर एकाकार हो जाती है गंगा की अथाह
जलराशि में। गंगा अपने अंतर्गर्भ में शत-सहस्र वर्षों की इतिहास संस्कृति
छिपाए आप्लावित करती रही है इस परिभूमि को। गंगा के पुण्योदक से यह अंचल
चिर संपोषित रहा है, इसको बाढ़ों ने जिजीविषा दी है। कृतज्ञ हैं गंगा
तटवासी भगीरथ के, जिन्होंने अपनी घोर तपस्या से, सगर पुत्रों के मोक्ष
हेतु धरती पर गंगा का अवतरण कराया, उन्हें सगर तक पहुँचाया। गंगा बड़े
उद्दाम वेग से धरती पर चली थीं। वर्षों तक शंकर की जटाओं में भटकती रहीं।
समतल में आने पर भगीरथ का रथ गंगा के आगे-आगे सागर तक चल पड़ा था। कहते
हैं, जहाँ तक रथ का पहिया घूमा था वहीं है परिसीमा गंगा की बाढ़ की,
भागीरथी ने इस लक्ष्मण-रेखा की मर्यादा सदा निभाई है।
गांगेय अंचल के दक्षिणी शीर्ष को आरा-बक्सर सड़क स्पर्श करती है। सड़क के दोनों तरफ जहाँ तक दृष्टि जाती है, आम महुआ, शीशम के वृक्षों की नयनाभिराम पंक्तियाँ, पंक्तियों के बीच वेणीभूत काली अलकावली-सा सर्पिल रास्ता। वर्षा के दिनों में लगता है, दोनों तरफ के सद्यःस्नात् वृक्ष स्पर्श आलिंगन के लिए विह्लल हो उठते हैं। सौंदर्य बिखर जाता है। सटे दक्षिण कोसों दूर तक उपत्यकामयी ऊबड़-खाबड़ धरती पर बिछी पटरी पर दौड़ने वाली रेलगाड़ियाँ व कानों में पड़नेवाली उनकी दिगंत भेदी सीटियाँ-यही है परिवेश बाबा बरमेश्वर नाथका।
सभी तरह के मनोरथों को पानेवाले दूर-दूर के भक्त बाबा की शरण में आते हैं, अभिषेक करते हैं। पर धन्य हैं, वे जिन्होंने शिवार्चन से नित्यता प्राप्त कर ली है, जो शीत-धूप-बरसात की चिंता किए बिना नित्य गंगा तट पर सोते हैं और जब अन्य लोग सोए ही रहते हैं, स्नानादि से निवृत्त हो बरमेश्वर नाथपर गंगोदक चढ़ा देते हैं। उनके इस नियम के समक्ष प्रकृति के सभी व्यवधान नतमस्तक हैं।
पुष्करिणी के नैऋत्य कोण पर मंदिर का परिसर है। पाकड़ और इमली के पुराने वृक्ष हैं। कहते हैं, मंदिर का दरवाजा पूर्वान्मुख था, किसी विधर्मी ने मंदिर तोड़ना चाहा था, बरमेश्वर नाथ ने मंदिर के दरवाजे की दिशा बदलकर अपनी शक्ति का संकेत दिया था। इनकी अमित शक्ति के सामने उस विधर्मी ने घुटने टेक दिए थे। और हतप्रभ हो लौट गया था। आज भी प्रवेश द्वार उत्तरोन्मुख है।
प्रवेश-द्वार के आगे सुंदर मुखड़े पर चेचक की दाग सी छोटी बेढंगी दुकानें खुल गई हैं। नकली प्रसाधन सामग्री, तेल की मिठाइयाँ व घरेलू सामान भी बिकने लगे हैं। यह छोटी बाजार स्थानीय लोक-रुचि का प्रतिनिधि है। पहले दुकानें नहीं थीं। खाली जगह थी, सभाएँ होती थीं, प्रवचन होते थे। आजादी के बाद, जमींदारी टूटने के बाद, धर्म और शक्ति के सामंतों ने ये दुकानें खुलवा दीं। अर्थतंत्र के नए अध्याय की शुरुआत हुई। 15 अगस्त, 1947 को एक ध्वज स्तंभ यहीं स्थापित किया गया था। एक नया इतिहास रचा गया था धर्म की धुरी से राष्ट्रीय गौरव जुड़ गया था। आगे चलकर राष्ट्रीयता पर राजनीति और अर्थनीति हावी हो गई और ध्वज स्तंभ का स्थान बदल दिया गया था। काफी समय तक कानूनी विवाद भी चला था, जो अन्य विवादों की तरह की काल-स्रोत के मलबे के नीचे दब गया।
बाबा बरमेश्वर की नगरी में कब से आना-जाना शुरू हुआ, ठीक से याद नहीं; पर बहुत ठीक से याद है 15 अगस्त, 1947 को, जिस दिन भारत ने आजादी का पहला सूर्योदय देखा था, गाँव की पाठशाला के अन्य छात्रों के साथ मैं यहाँ आया था। हाथ में तिरंगा और जेब पर किसी राष्ट्रीय पुरुष के चित्र का बैज लगा था। आस-पास के अन्य गाँवों की पाठशालाओं से भी छात्र आए थे। सभी को मिठाइयाँ खिलाई गई थीं। सभी ने नारे लगाए थे। यह सब क्यों हुआ था, क्या हुआ था, उस दिन समझ में नहीं आ सका था। हाँ, दो-चार दिन पहले गाँव के शिवालय के चबूतरे पर जगन्नाथ भैया को कहते सुना था, ‘अंग्रेज जा रहे हैं, वे शुक्रवार को मिठाई खिलाएँगे।’ कौन हैं ये अंग्रेजी ? क्यों जा रहे हैं ? कहां जा रहे हैं ? किस खुशी में मिठाई खिलाएँगे ? अगर वे नहीं खिलाएँगे, कौन खिलाएगा ? ये सारे प्रश्न मन में कौतूहल उत्पन्न कर रहे थे। सबकुछ पहेली जैसा था।
बाबा बरमेश्वर की नगरी में उस दिन कोई अंग्रेज नहीं दिखा था। मिठाइयाँ जरूर बँटी थीं। तिवारी के गिराज में मिठाइयाँ बनी थीं। पैसे चंदा से आए थे। बाद, बहुत बाद सुना चंदा उगाहने और मिठाइयों के वितरण में बहुत हेराफेरी हुई थी। अब सोचकर संतोष होता है कि उस रोज कोई भारी गड़बड़ी या बलवा नहीं हुआ। आखिरकार,15 अगस्त का दिन जो ठहरा।
लॉर्ड माउंटबेटन ने कहा था, ‘भारत को शीघ्र ही आजाद कर दिया जाएगा।’ वे अपनी योजना पर तेजी से काम कर रहे थे। कलकत्ता में पत्रकारों ने उन्हें घेरकर पूछा था, ‘भारत कब आजाद हो रहा है ? कोई निश्चित तिथि बताएँ।’ माउंटबेटन ने न आव देखा था, न ताव, झट कह दिया था-‘15 अगस्त को।’ इसके लिए उन्होंने लंदन स्थित भारत के कार्यालय या गृह विभाग से कोई परामर्श नहीं लिया था। समाचार सुनकर ब्रिटिश सरकार भी सकते में आ गई थी। क्योंकि लॉर्ड माउंटबेटन ने 15 अगस्त को वर्मा विजय की थी। जीत का फतवा पाया था, 15 अगस्त उनका शुभ दिन था। भारत में ज्योतिषियों ने अपने पंचांग खोले थे। दिन बहुत अशुभ था। यदि 15 अगस्त को सत्ता हस्तांरण होता, खून की नदी बहती। समाधान के रूप में आधी रात को आजादी दी गई थी। सत्ता हस्तांतरण हुआ था। खून-खराबा तो हुआ ही, किंतु बाबा की नगरी शांत थी। वर्षों तक स्वतंत्रता दिवस का कार्यक्रम शालीन रहा। प्रभातफेरियाँ, विचार गोष्ठियाँ होती रहीं। भारत के नव निर्माण के संकल्प दोहराए जाते रहे। आशा और उमंग की नई रोशनियाँ नए आलोक बिखेरती रहीं। धीरे-धीरे सभी निस्तेज हो गए। सरकारी कार्यालयों और इमारतों पर राष्ट्र ध्वज छात्रों और युवकों की बिना टिकट उच्छृंखल लंबी रेलयात्राएँ मंत्रियों के उपदेश-स्वतंत्रता दिवस के प्रतीक बन गए। आम आदमी इस राष्ट्रीय महोत्सव से बिलकुल कट सा गया।
गांगेय अंचल के दक्षिणी शीर्ष को आरा-बक्सर सड़क स्पर्श करती है। सड़क के दोनों तरफ जहाँ तक दृष्टि जाती है, आम महुआ, शीशम के वृक्षों की नयनाभिराम पंक्तियाँ, पंक्तियों के बीच वेणीभूत काली अलकावली-सा सर्पिल रास्ता। वर्षा के दिनों में लगता है, दोनों तरफ के सद्यःस्नात् वृक्ष स्पर्श आलिंगन के लिए विह्लल हो उठते हैं। सौंदर्य बिखर जाता है। सटे दक्षिण कोसों दूर तक उपत्यकामयी ऊबड़-खाबड़ धरती पर बिछी पटरी पर दौड़ने वाली रेलगाड़ियाँ व कानों में पड़नेवाली उनकी दिगंत भेदी सीटियाँ-यही है परिवेश बाबा बरमेश्वर नाथका।
सभी तरह के मनोरथों को पानेवाले दूर-दूर के भक्त बाबा की शरण में आते हैं, अभिषेक करते हैं। पर धन्य हैं, वे जिन्होंने शिवार्चन से नित्यता प्राप्त कर ली है, जो शीत-धूप-बरसात की चिंता किए बिना नित्य गंगा तट पर सोते हैं और जब अन्य लोग सोए ही रहते हैं, स्नानादि से निवृत्त हो बरमेश्वर नाथपर गंगोदक चढ़ा देते हैं। उनके इस नियम के समक्ष प्रकृति के सभी व्यवधान नतमस्तक हैं।
पुष्करिणी के नैऋत्य कोण पर मंदिर का परिसर है। पाकड़ और इमली के पुराने वृक्ष हैं। कहते हैं, मंदिर का दरवाजा पूर्वान्मुख था, किसी विधर्मी ने मंदिर तोड़ना चाहा था, बरमेश्वर नाथ ने मंदिर के दरवाजे की दिशा बदलकर अपनी शक्ति का संकेत दिया था। इनकी अमित शक्ति के सामने उस विधर्मी ने घुटने टेक दिए थे। और हतप्रभ हो लौट गया था। आज भी प्रवेश द्वार उत्तरोन्मुख है।
प्रवेश-द्वार के आगे सुंदर मुखड़े पर चेचक की दाग सी छोटी बेढंगी दुकानें खुल गई हैं। नकली प्रसाधन सामग्री, तेल की मिठाइयाँ व घरेलू सामान भी बिकने लगे हैं। यह छोटी बाजार स्थानीय लोक-रुचि का प्रतिनिधि है। पहले दुकानें नहीं थीं। खाली जगह थी, सभाएँ होती थीं, प्रवचन होते थे। आजादी के बाद, जमींदारी टूटने के बाद, धर्म और शक्ति के सामंतों ने ये दुकानें खुलवा दीं। अर्थतंत्र के नए अध्याय की शुरुआत हुई। 15 अगस्त, 1947 को एक ध्वज स्तंभ यहीं स्थापित किया गया था। एक नया इतिहास रचा गया था धर्म की धुरी से राष्ट्रीय गौरव जुड़ गया था। आगे चलकर राष्ट्रीयता पर राजनीति और अर्थनीति हावी हो गई और ध्वज स्तंभ का स्थान बदल दिया गया था। काफी समय तक कानूनी विवाद भी चला था, जो अन्य विवादों की तरह की काल-स्रोत के मलबे के नीचे दब गया।
बाबा बरमेश्वर की नगरी में कब से आना-जाना शुरू हुआ, ठीक से याद नहीं; पर बहुत ठीक से याद है 15 अगस्त, 1947 को, जिस दिन भारत ने आजादी का पहला सूर्योदय देखा था, गाँव की पाठशाला के अन्य छात्रों के साथ मैं यहाँ आया था। हाथ में तिरंगा और जेब पर किसी राष्ट्रीय पुरुष के चित्र का बैज लगा था। आस-पास के अन्य गाँवों की पाठशालाओं से भी छात्र आए थे। सभी को मिठाइयाँ खिलाई गई थीं। सभी ने नारे लगाए थे। यह सब क्यों हुआ था, क्या हुआ था, उस दिन समझ में नहीं आ सका था। हाँ, दो-चार दिन पहले गाँव के शिवालय के चबूतरे पर जगन्नाथ भैया को कहते सुना था, ‘अंग्रेज जा रहे हैं, वे शुक्रवार को मिठाई खिलाएँगे।’ कौन हैं ये अंग्रेजी ? क्यों जा रहे हैं ? कहां जा रहे हैं ? किस खुशी में मिठाई खिलाएँगे ? अगर वे नहीं खिलाएँगे, कौन खिलाएगा ? ये सारे प्रश्न मन में कौतूहल उत्पन्न कर रहे थे। सबकुछ पहेली जैसा था।
बाबा बरमेश्वर की नगरी में उस दिन कोई अंग्रेज नहीं दिखा था। मिठाइयाँ जरूर बँटी थीं। तिवारी के गिराज में मिठाइयाँ बनी थीं। पैसे चंदा से आए थे। बाद, बहुत बाद सुना चंदा उगाहने और मिठाइयों के वितरण में बहुत हेराफेरी हुई थी। अब सोचकर संतोष होता है कि उस रोज कोई भारी गड़बड़ी या बलवा नहीं हुआ। आखिरकार,15 अगस्त का दिन जो ठहरा।
लॉर्ड माउंटबेटन ने कहा था, ‘भारत को शीघ्र ही आजाद कर दिया जाएगा।’ वे अपनी योजना पर तेजी से काम कर रहे थे। कलकत्ता में पत्रकारों ने उन्हें घेरकर पूछा था, ‘भारत कब आजाद हो रहा है ? कोई निश्चित तिथि बताएँ।’ माउंटबेटन ने न आव देखा था, न ताव, झट कह दिया था-‘15 अगस्त को।’ इसके लिए उन्होंने लंदन स्थित भारत के कार्यालय या गृह विभाग से कोई परामर्श नहीं लिया था। समाचार सुनकर ब्रिटिश सरकार भी सकते में आ गई थी। क्योंकि लॉर्ड माउंटबेटन ने 15 अगस्त को वर्मा विजय की थी। जीत का फतवा पाया था, 15 अगस्त उनका शुभ दिन था। भारत में ज्योतिषियों ने अपने पंचांग खोले थे। दिन बहुत अशुभ था। यदि 15 अगस्त को सत्ता हस्तांरण होता, खून की नदी बहती। समाधान के रूप में आधी रात को आजादी दी गई थी। सत्ता हस्तांतरण हुआ था। खून-खराबा तो हुआ ही, किंतु बाबा की नगरी शांत थी। वर्षों तक स्वतंत्रता दिवस का कार्यक्रम शालीन रहा। प्रभातफेरियाँ, विचार गोष्ठियाँ होती रहीं। भारत के नव निर्माण के संकल्प दोहराए जाते रहे। आशा और उमंग की नई रोशनियाँ नए आलोक बिखेरती रहीं। धीरे-धीरे सभी निस्तेज हो गए। सरकारी कार्यालयों और इमारतों पर राष्ट्र ध्वज छात्रों और युवकों की बिना टिकट उच्छृंखल लंबी रेलयात्राएँ मंत्रियों के उपदेश-स्वतंत्रता दिवस के प्रतीक बन गए। आम आदमी इस राष्ट्रीय महोत्सव से बिलकुल कट सा गया।
दो
वर्षों बाद कुमार ने बाबा की धरती पर बदलाव का अनुभव किया। बदलाव गुणात्मक
या रुपात्मक नहीं, ध्वन्यात्मक था। परिवेश में कई ध्वनियाँ गूँज रही थीं।
ध्वनि और अनुगूँज अन्योन्याश्रित हैं। हमारी चेतना जब इन्हें पकड़ ले, तब
अनुभूति होती है। जमींदारी उन्मूलन, विकास खंड, सहकारिता, समाजवाद,
पंचायती राज, साक्षरता कई तरह की ध्वनियाँ हैं, पर रूप किसी का भी स्पष्ट
नहीं है। कुमार लोगों की बातचीत सुनता है। जमींदारी समाप्त हो गई। अब
सामंतों का युग बीत गया, साधारण जनता अमन चैन का जीवनयापन करेगी।
जमींदारी ? कुमार इतिहास के पन्नों में ढूँढ़ता है, सर्वभूमि गोपाल की थी। समाज ने राजा गढ़ा। धर्माध्यक्षों ने राजा को भगवान् का प्रतिनिधि बनाया। वंशानुक्रम से एक के बाद दूसरा राजा होता रहा। मध्य युग में राजा सुलतान कहलाने लगे। व्यापार करने आए अंग्रेजों ने शासन की बागडोर सुलतान से छीन ली। ईस्ट इंटिया कंपनी ही राजा हो गई। महारानी विक्टोरिया ने कंपनी का अधिग्रहण कर लिया। कंपनी का एक प्रशासक कॉर्नवालिस था, उसने भूमि सुधार लागू किए। परमानेंट सेटलमेंट किया। जिन लोगों ने कंपनी से जमीनें सीधे अपने नाम करा लीं, जमींदार हो गए। मामूली लगान कंपनी को देने लगे और अपनी जमीन छोटे-छोटे काश्तकारों को देकर ज्यादा-ज्यादा लगान वसूलने लगे। ये बिचौलिया बन गए और कंपनी की शह पर आम जनता का शोषण करने लगे। ये जमींदार हो गए। गोरे अधिकारियों के परिचय का लाभ भी इन्हें मिला। परिचय की आड़ में जनता की मान-प्रतिष्ठा, आर्थिक स्थिति को इन लोगों ने गेंद बना लिया।
छोटे-छोटे किसान इनकी जमींदारी की जमीनों पर खेती करते थे, इन्हें लगान देते थे। जमीन का सुधार, सिंचाई की व्यवस्था या जनकल्याण का दायित्व उनपर तनिक भी नहीं था। अनावर्षण, अतिवर्षण सूखा व महामारी से आम जनता तबाह थी। लगान की वसूली के लिए इनके लठैत और प्यादे गाँवों में घूमते थे। गाँववालों को दोपाए-चौपाए सबको भोजन देना पड़ता था। जलावन देना पड़ता, बेगार देना पड़ता था, और फिर वसूली की सख्ती। सबको लगान तो देना ही था; किंतु अन्न पैदा हो, तब तो ! काश्तकारों के पास कुछ हो, तब तो देते ! बेचारे सूखे गन्ने और अरहर के खेतों में छिप जाते थे। पकड़े जाने पर बाँध दिया जाता था। ऊपर से मार-पीट और गालियों की बौछारें; फिर खेत नीलाम हो जाता। कुमार को अजीब लगा। इनसान को किस्तों से चलना पड़ा है ! उसे ग्लानि हुई, उसे जरूरत थी, इन कागजी बातों की पुष्टि की। मन-ही-मन गुरु भी तलाश करने लगा।
दूर से ही खादी के कपड़ों में लथपथ कुमार को देखकर सबकी आँखें उसी पर टिक गईं। जुगनू मिसिर ने बड़ी आत्मीयता से कहा, ‘‘बड़ी गरमी में पड़ गए, कुमार बाबू ! आओ, आओ थोड़ा ठंडा लो। क्या कुछ नई खबर है, अखबार में ?’’ और उन्होंने कुमार को पीने के लिए पानी लाने का संकेत किया। दालान के आगे नीम के पेड़ के नीचे मिसिरजी का सेमिनार चल रहा था। स्थायी सदस्य बटेसर लाल, हिम्मत सिंह, गजाधर पहलवान और कई लोग बैठे थे। चौकी पर बैठते हुए कुमार ने कहा, ‘‘मिसिरजी, हररोज तो अखबार में नया ही समाचार रहता है, कुछ हुआ, कुछ होनेवाला रहता है। छोड़िए इन बातों को, मुझे एक बात बताने की कृपा करें, क्या जमींदारी के दिनों में सचमुच जनता पर अत्याचार होता था ?’’ यह सवाल कई दिनों से कुमार के मन में घुमड़ रहा था और जुगनू मिसिर सा पका आदमी ही इस सवाल पर प्रकाश डाल सकता था।
‘‘यह तो तुमने गड़ा मुरदा उखाड़ा है।’’ मिसिरजी ने कहा।
अब तक कुमार मीठा खाकर पानी पी चुका था। ‘‘अपने गाँव की जमीन तो देखते ही हो, कुमार बाबू !’ मिसिरजी ने चिंतन की मुद्रा अपनाते हुए कहा, ‘‘लगता है, किसी जमाने में यह पहाड़ रहा होगा-कहीं ऊँचा, कहीं नीचा। नाला, जो अभी काफी भयावह हो गया है, पहले बहुत पतला था। रेल की लाइनें निकलीं। नहर बनी। नहर का फायदा ऊपरवाले गाँवों को मिला। सबका बचा-खुचा पानी इसी नाले में गिरने लगा बाढ़ भी आने लगी। किनारे के खेतों की फसल जाती रही। ऊपर की जमीनों में कभी कुछ पैदा नहीं हुआ। फिर भी जमींदार के प्यादे हाथी घोड़ों पर चढ़कर लगान वसूलने आते। गाँव में कोहराम मच जाता था। जमीनवाले लोग तो घर छोड़कर भाग जाते। गोंड उनके लिए ईंधन का इंतजाम करता, कुम्हार बरतन देता, कमकर पूरे जोश व खरोश से उनका भोजन बनाता। बैठे-बैठे वह रोबदारी करते थे। गाँव का गोड़इत दूत दौड़-दौड़कर लोगों को बुलाने जाता और किसी के बीमार होने, किसी के हितई में चल जाने की रिपोर्ट करता। एक साल का भी लगान बकाया होने पर जमीन नीलाम हो जाती, फिर उस नीलाम जमीन की बंदोबस्ती। उसे लेने के लिए अपने सगे-संबंधी ही तैयार हो जाते। वह डोहर तडवन्ना पटसार, सइनी जो देख रहे हो, कई बार नीलाम हो चुके हैं। कभी-कभी तो जमीन बेचकर लगान चुकाना पड़ता था। इसी तरह बेचते और लगान देते-देते कई परिवार भूमिहीन हो गए।’’
‘‘लगान माफी नहीं होता था, ‘मिसिरजी ?’’ कुमार के सारे प्रश्न अभी उभरे नहीं थे कि हिम्मत सिंह ने लोक लिया, ‘‘माफी, वह क्यों ? खेत जोतोगे और लगान नहीं दोगे ? ’’
‘‘पैदा होने पर ही तो लगान दिया जाएगा।’’
‘‘पैदा हो या न हो, जमीन तो तुमने रखी, जमीन रखी तो लगान देना ही है, चाहे जहाँ से दो।’’ हिम्मत सिंह ने कहा।
‘‘कुछ नहीं। जमीन रखो, लगान दो।’’ हिम्मत सिंह के इस ब्रह्म-वाक्य के सामने कुमार ने चुप्पी साध ली।
‘‘अच्छा, अब तो जमींदारी खत्म हो गई। देखते हैं, न, कैसे रामराज धरती पर उतर रहा है ?’’ बटेसर लाल ने ज्ञान छाँटा, ‘‘सुनते हैं, खेत भी उन्हीं के पास रहेगा, जो खेती करेगा। क्या सरकारी पागलपन है ? जमीन ही तो अचल संपत्ति है। यदि अपने से न हो सके तो किसी से कराकर भी आदमी का परिवार पलता है। अब जड़ पर ही टाँगा भिड़ाया जा रहा है।’’
‘‘अरे, आगे देखना ! अब किसी का किसी के ऊपर अंकुश नहीं रहेगा। न तो कोई किसी का मान-सम्मान करेगा और न लिहाज। खेतों में काम करनेवाले मजदूर भी नहीं मिलेंगे। जो रास्ता शुरू हुआ है और जिस कदर मजदूरी लागू हो रही है नाधा-पैना टँग जाएगा।’’ हिम्मत सिंह ने कहा।
‘‘अब खटकर खाने का समय आ गया है। मेहनत करो और चैन की वंशी बजाओ। दूसरे की मेहनत पर मालपूआ कब तक काटोगे !’’ गजाधर पहलवान अपने को रोक नहीं पाया।
बटेसर की बात कुमार को अच्छी नहीं लगी थी। चर्चा आगे बढ़ाना चाहता था। बार-बार कबाब में हड्डी की तरह लोगों के टपक पड़ने से उसने बात वहीं बंद कर देना उचित समझा।
‘‘और सुनो, कुमार बाबू’’ जुगून मिसिर ने बातों का क्रम आगे बढ़ाया, ‘‘रात में जमींदार के हाथी-घोड़े खोल दिए जाते थे। रात भर में मनचाहा घूमकर रही-सही फसल का भी नाश कर देते थे। चरते कम, रौंदते ज्यादा थे।’’
‘‘इसका कोई प्रतिवाद नहीं था ?’’ कुमार ने पूछा।
‘‘प्रतिवाद ! वह किस चिड़िया का नाम है। जमींदार के सामने यों ही नहीं जाते थे। प्रतिवाद करने का सवाल क्या था ? कभी-कभार कोई बाहर से अच्छी चीज लाता था, तो उसे जमींदार को नजर करनी पड़ती थी, अन्यथा दरबार में उसकी बुलाहट होती। यहाँ तक कि लोग अच्छे कपड़े, जूते भी नहीं पहन सकते थे। एक तो उनकी समृद्धि से जमींदार को ईर्ष्या होती, दूसरे कि यदि उसके पास कोई अच्छी चीज है तो सत्राजित की मणि की तरह जमींदार को भेंट करनी चाहिए।’’
‘‘ऐसा क्यों हुआ ? राजा तो प्रजापालक माना गया है ?’’
‘‘यही तुम्हारी भूल है, कुमार बाबू। वे राजा नहीं थे। वे तो कंपनी के बिचौलिए थे। खुद अच्छी चीजें कंपनी के आला अफसरों को देकर उनसे कृपा खरीदते थे।’’
‘‘राज तो ब्रिटिश का था, कंपनी तो खत्म हो गई थी।’’ कुमार ने कहा।
‘‘राज चाहे किसी का हुआ, स्थिति तो वही थी। कंपनी के हट जाने से उसके संस्कार, अमले-फैले तो वही थे। कंपनी के दिनों में जिन्होंने लूटा, राज के दिनों में भी वे कैसे स्वाद छोड़ देते ? दाँत जो एक बार निकल जाता है, भीतर थोड़े ही जाता है !’’ मिसिरजी ने कहा, ‘‘क्या आजादी के बाद अफसरों में कुछ बदलाव आया है ?’’
कुमार जाना ही चाहता था, किंतु मिसिरजी ने रोक लिया। ‘‘सुनो-सुनो, कुछ तजरबे की बातें सुनो-वो महुआ के पासवाला छब्बीस बीघे का टुकड़ा नंद किशोर सिंहवाला देखते हो न, एक बार वह नीलामी पर चढ़ा। बेनी सिंह की पट्टीवालों के पास उस समय पैसा था, खूब पैसा। वे लोग उस जमीन को नीलाम खरीदने के लिए दिल-दाम से तैयार हो गए। लगा, इस बार यह जमीन नंद किशोर सिंह के पुरखों के हाथ से निकल जाएगी। वे लोग भी कम खिलाड़ी नहीं थे, दौड़-धूप कर रुपया जुटाए। बेनी पट्टीवालों ने कहा, रुपए तो जुटा लिये, पर न्योता के भरोसे यज्ञ नहीं होता। अब डाक होगी, डाक। जो ज्यादा बोली बोलेगा, जमीन उसकी होगी। उस समय बोली के बराबर रुपए तो उनके पास होंगे नहीं, कहाँ दौड़ेंगे ? खूब हुमाहुमी हुई। डाक के दिन इनका सबसे होशियार संवांग डोंडा में रुपया बाँधकर गया। बस क्या था, नंद किशोर सिंह के चाचा ने पुकार करनेवाले को दो रुपए दिए, कहा-यदि इन लोगों के नहीं रहने पर हमारी जमीन के डाक का पुकार करोगे तो जिंदगी भर तुम्हारा नाम लेंगे। चपरासी भी कम घाघ नहीं था। उसने कहा-ऐसे नहीं होगा, यदि आप अपने छोटे लड़के की शादी हमारे घर कर देंगे, तो आपकी जमीन बचा दूँगा। फिर क्या था ? हाड़-चाम ठीक था, जाति बिरादरी ठीक ही थी। छब्बीस बीघे जमीन का मामला था, नंद किशोर के चाचा ने हाँ कह दिया।
थोड़ी देर बाद चपरासी आया। नंद किशोर सिंह के चाचा को आँख मारी और कहा-‘‘अरे आप लोग कब तक बिना खाए पिए मरते रहोगे ! अभी तो डाक साहब आए नहीं हैं। जाकर कुछ खा पी लें। तीन बजे के पहले डाक थोड़े होगा। बेनी पट्टीवाले धौंस में आ गए। बाजार में खाना खाने चले गए। जब लौटे तो पता चला कि डाक हो गया। जमीन नंद किशोर सिंह के परिवारवालों की हो गई। बेनी पट्टीवालों को बड़ा दुःख हुआ। नंद किशोर सिंह के खानदान की जमीन जाते-जाते खानदान में रह गई। गाँव आने पर महावीरजी को प्रसाद चढ़ाया। बड़ी धूमधाम से पूजा हुई।’’
‘‘काश्तकार भी कम चालू नहीं थे।’’ कुमार को अचरज हुआ, ‘‘इसमें प्रसाद बाँटने की क्या बात थी ?’’
‘‘क्या, प्रसाद तो मन की खुशी का प्रतीक है। दोहरी खुशी थी। एक तो जमीन खानदान में गई, दूसरे दुश्मन जो सिकंदर जैसा खानदान की धरती पर मँडराने लगा था, परास्त हो गया।’’ मिसिरजी इस वाक्य के साथ ही सब लोग हँस पड़े।
‘‘काश्तकारों में ही दाँवपेंच नहीं होता था’’, अभी हँसी का मुखरित स्वर शांत नहीं हुआ था, मिसिरजी ने कहना शुरू किया, ‘जमींदारों में भी खूब लठनती थी। जमींदार होना गौरव और प्रतिष्ठा की बात थी। जमीन चाहे पाँच सौ बीघे क्यों न हो, यदि रुपए में दो पैसे की भी जमींदारी नहीं हुई तो कुछ नहीं। जमीन का होना तो प्रतिष्ठा की बात थी। पर, हर खाता-पीता काश्तकार सोचता था कि जमींदारी हो जाय। प्रतिवर्ष लोग खरीदने की कोशिश में रहते। मार्च का महीना, मार्च का आखिरी दिन पहलाम का दिन होता था। जमींदारों को कलक्टरी में अपना रिटर्न देना होता था। जमींदारी की लगान भरनी होती थी। यदि मार्च आखिरी दिन तक यह लगान नहीं भरी जाय, जमींदारी की लगान भरनी होती थी। गाँव-गिराँव के छोटे-बड़े जमींदार अपना-अपना रिटर्न देने जिला कार्यालय में जाते थे। बड़ी प्रतीक्षा से यह समय आता था। रिटर्न तो भरा ही जाता, बाँस फाँस में मिश्री जैसे शहर के रंगो-जश्न भी मनाने का मौका मिलता था। ज्यादातर छुटभैए जमींदारों के कारबार देखनेवाले पटवारी ही होते थे। वही रिटर्न और लगान का सारा काम करते थे। जमींदारों के बिगड़े हुए साहबजादों पर तो शहर में पहुँचते ही नशा छा जाता। ज्यादातर लोग पतुरियों के कोठों पर नाच और शराब का आनंद लेने चले जाते। रात तक राग-रंग में डूबे रहते। सुबह पता चलता, लगान के सारे पैसे तो कोठे पर खर्च हो गए या जमींदारी नीलाम हो गई। किसी दूसरे ने खरीद ली। मुकदमा प्रीवी काउंसिल तक पहुँचा था। हर साल कितने लोग बनते और बिगड़ जाते थे।’’
‘‘यह तो भगवान् का न्याय था, दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता था।’’ कुमार ने कहा।
जमींदारी ? कुमार इतिहास के पन्नों में ढूँढ़ता है, सर्वभूमि गोपाल की थी। समाज ने राजा गढ़ा। धर्माध्यक्षों ने राजा को भगवान् का प्रतिनिधि बनाया। वंशानुक्रम से एक के बाद दूसरा राजा होता रहा। मध्य युग में राजा सुलतान कहलाने लगे। व्यापार करने आए अंग्रेजों ने शासन की बागडोर सुलतान से छीन ली। ईस्ट इंटिया कंपनी ही राजा हो गई। महारानी विक्टोरिया ने कंपनी का अधिग्रहण कर लिया। कंपनी का एक प्रशासक कॉर्नवालिस था, उसने भूमि सुधार लागू किए। परमानेंट सेटलमेंट किया। जिन लोगों ने कंपनी से जमीनें सीधे अपने नाम करा लीं, जमींदार हो गए। मामूली लगान कंपनी को देने लगे और अपनी जमीन छोटे-छोटे काश्तकारों को देकर ज्यादा-ज्यादा लगान वसूलने लगे। ये बिचौलिया बन गए और कंपनी की शह पर आम जनता का शोषण करने लगे। ये जमींदार हो गए। गोरे अधिकारियों के परिचय का लाभ भी इन्हें मिला। परिचय की आड़ में जनता की मान-प्रतिष्ठा, आर्थिक स्थिति को इन लोगों ने गेंद बना लिया।
छोटे-छोटे किसान इनकी जमींदारी की जमीनों पर खेती करते थे, इन्हें लगान देते थे। जमीन का सुधार, सिंचाई की व्यवस्था या जनकल्याण का दायित्व उनपर तनिक भी नहीं था। अनावर्षण, अतिवर्षण सूखा व महामारी से आम जनता तबाह थी। लगान की वसूली के लिए इनके लठैत और प्यादे गाँवों में घूमते थे। गाँववालों को दोपाए-चौपाए सबको भोजन देना पड़ता था। जलावन देना पड़ता, बेगार देना पड़ता था, और फिर वसूली की सख्ती। सबको लगान तो देना ही था; किंतु अन्न पैदा हो, तब तो ! काश्तकारों के पास कुछ हो, तब तो देते ! बेचारे सूखे गन्ने और अरहर के खेतों में छिप जाते थे। पकड़े जाने पर बाँध दिया जाता था। ऊपर से मार-पीट और गालियों की बौछारें; फिर खेत नीलाम हो जाता। कुमार को अजीब लगा। इनसान को किस्तों से चलना पड़ा है ! उसे ग्लानि हुई, उसे जरूरत थी, इन कागजी बातों की पुष्टि की। मन-ही-मन गुरु भी तलाश करने लगा।
दूर से ही खादी के कपड़ों में लथपथ कुमार को देखकर सबकी आँखें उसी पर टिक गईं। जुगनू मिसिर ने बड़ी आत्मीयता से कहा, ‘‘बड़ी गरमी में पड़ गए, कुमार बाबू ! आओ, आओ थोड़ा ठंडा लो। क्या कुछ नई खबर है, अखबार में ?’’ और उन्होंने कुमार को पीने के लिए पानी लाने का संकेत किया। दालान के आगे नीम के पेड़ के नीचे मिसिरजी का सेमिनार चल रहा था। स्थायी सदस्य बटेसर लाल, हिम्मत सिंह, गजाधर पहलवान और कई लोग बैठे थे। चौकी पर बैठते हुए कुमार ने कहा, ‘‘मिसिरजी, हररोज तो अखबार में नया ही समाचार रहता है, कुछ हुआ, कुछ होनेवाला रहता है। छोड़िए इन बातों को, मुझे एक बात बताने की कृपा करें, क्या जमींदारी के दिनों में सचमुच जनता पर अत्याचार होता था ?’’ यह सवाल कई दिनों से कुमार के मन में घुमड़ रहा था और जुगनू मिसिर सा पका आदमी ही इस सवाल पर प्रकाश डाल सकता था।
‘‘यह तो तुमने गड़ा मुरदा उखाड़ा है।’’ मिसिरजी ने कहा।
अब तक कुमार मीठा खाकर पानी पी चुका था। ‘‘अपने गाँव की जमीन तो देखते ही हो, कुमार बाबू !’ मिसिरजी ने चिंतन की मुद्रा अपनाते हुए कहा, ‘‘लगता है, किसी जमाने में यह पहाड़ रहा होगा-कहीं ऊँचा, कहीं नीचा। नाला, जो अभी काफी भयावह हो गया है, पहले बहुत पतला था। रेल की लाइनें निकलीं। नहर बनी। नहर का फायदा ऊपरवाले गाँवों को मिला। सबका बचा-खुचा पानी इसी नाले में गिरने लगा बाढ़ भी आने लगी। किनारे के खेतों की फसल जाती रही। ऊपर की जमीनों में कभी कुछ पैदा नहीं हुआ। फिर भी जमींदार के प्यादे हाथी घोड़ों पर चढ़कर लगान वसूलने आते। गाँव में कोहराम मच जाता था। जमीनवाले लोग तो घर छोड़कर भाग जाते। गोंड उनके लिए ईंधन का इंतजाम करता, कुम्हार बरतन देता, कमकर पूरे जोश व खरोश से उनका भोजन बनाता। बैठे-बैठे वह रोबदारी करते थे। गाँव का गोड़इत दूत दौड़-दौड़कर लोगों को बुलाने जाता और किसी के बीमार होने, किसी के हितई में चल जाने की रिपोर्ट करता। एक साल का भी लगान बकाया होने पर जमीन नीलाम हो जाती, फिर उस नीलाम जमीन की बंदोबस्ती। उसे लेने के लिए अपने सगे-संबंधी ही तैयार हो जाते। वह डोहर तडवन्ना पटसार, सइनी जो देख रहे हो, कई बार नीलाम हो चुके हैं। कभी-कभी तो जमीन बेचकर लगान चुकाना पड़ता था। इसी तरह बेचते और लगान देते-देते कई परिवार भूमिहीन हो गए।’’
‘‘लगान माफी नहीं होता था, ‘मिसिरजी ?’’ कुमार के सारे प्रश्न अभी उभरे नहीं थे कि हिम्मत सिंह ने लोक लिया, ‘‘माफी, वह क्यों ? खेत जोतोगे और लगान नहीं दोगे ? ’’
‘‘पैदा होने पर ही तो लगान दिया जाएगा।’’
‘‘पैदा हो या न हो, जमीन तो तुमने रखी, जमीन रखी तो लगान देना ही है, चाहे जहाँ से दो।’’ हिम्मत सिंह ने कहा।
‘‘कुछ नहीं। जमीन रखो, लगान दो।’’ हिम्मत सिंह के इस ब्रह्म-वाक्य के सामने कुमार ने चुप्पी साध ली।
‘‘अच्छा, अब तो जमींदारी खत्म हो गई। देखते हैं, न, कैसे रामराज धरती पर उतर रहा है ?’’ बटेसर लाल ने ज्ञान छाँटा, ‘‘सुनते हैं, खेत भी उन्हीं के पास रहेगा, जो खेती करेगा। क्या सरकारी पागलपन है ? जमीन ही तो अचल संपत्ति है। यदि अपने से न हो सके तो किसी से कराकर भी आदमी का परिवार पलता है। अब जड़ पर ही टाँगा भिड़ाया जा रहा है।’’
‘‘अरे, आगे देखना ! अब किसी का किसी के ऊपर अंकुश नहीं रहेगा। न तो कोई किसी का मान-सम्मान करेगा और न लिहाज। खेतों में काम करनेवाले मजदूर भी नहीं मिलेंगे। जो रास्ता शुरू हुआ है और जिस कदर मजदूरी लागू हो रही है नाधा-पैना टँग जाएगा।’’ हिम्मत सिंह ने कहा।
‘‘अब खटकर खाने का समय आ गया है। मेहनत करो और चैन की वंशी बजाओ। दूसरे की मेहनत पर मालपूआ कब तक काटोगे !’’ गजाधर पहलवान अपने को रोक नहीं पाया।
बटेसर की बात कुमार को अच्छी नहीं लगी थी। चर्चा आगे बढ़ाना चाहता था। बार-बार कबाब में हड्डी की तरह लोगों के टपक पड़ने से उसने बात वहीं बंद कर देना उचित समझा।
‘‘और सुनो, कुमार बाबू’’ जुगून मिसिर ने बातों का क्रम आगे बढ़ाया, ‘‘रात में जमींदार के हाथी-घोड़े खोल दिए जाते थे। रात भर में मनचाहा घूमकर रही-सही फसल का भी नाश कर देते थे। चरते कम, रौंदते ज्यादा थे।’’
‘‘इसका कोई प्रतिवाद नहीं था ?’’ कुमार ने पूछा।
‘‘प्रतिवाद ! वह किस चिड़िया का नाम है। जमींदार के सामने यों ही नहीं जाते थे। प्रतिवाद करने का सवाल क्या था ? कभी-कभार कोई बाहर से अच्छी चीज लाता था, तो उसे जमींदार को नजर करनी पड़ती थी, अन्यथा दरबार में उसकी बुलाहट होती। यहाँ तक कि लोग अच्छे कपड़े, जूते भी नहीं पहन सकते थे। एक तो उनकी समृद्धि से जमींदार को ईर्ष्या होती, दूसरे कि यदि उसके पास कोई अच्छी चीज है तो सत्राजित की मणि की तरह जमींदार को भेंट करनी चाहिए।’’
‘‘ऐसा क्यों हुआ ? राजा तो प्रजापालक माना गया है ?’’
‘‘यही तुम्हारी भूल है, कुमार बाबू। वे राजा नहीं थे। वे तो कंपनी के बिचौलिए थे। खुद अच्छी चीजें कंपनी के आला अफसरों को देकर उनसे कृपा खरीदते थे।’’
‘‘राज तो ब्रिटिश का था, कंपनी तो खत्म हो गई थी।’’ कुमार ने कहा।
‘‘राज चाहे किसी का हुआ, स्थिति तो वही थी। कंपनी के हट जाने से उसके संस्कार, अमले-फैले तो वही थे। कंपनी के दिनों में जिन्होंने लूटा, राज के दिनों में भी वे कैसे स्वाद छोड़ देते ? दाँत जो एक बार निकल जाता है, भीतर थोड़े ही जाता है !’’ मिसिरजी ने कहा, ‘‘क्या आजादी के बाद अफसरों में कुछ बदलाव आया है ?’’
कुमार जाना ही चाहता था, किंतु मिसिरजी ने रोक लिया। ‘‘सुनो-सुनो, कुछ तजरबे की बातें सुनो-वो महुआ के पासवाला छब्बीस बीघे का टुकड़ा नंद किशोर सिंहवाला देखते हो न, एक बार वह नीलामी पर चढ़ा। बेनी सिंह की पट्टीवालों के पास उस समय पैसा था, खूब पैसा। वे लोग उस जमीन को नीलाम खरीदने के लिए दिल-दाम से तैयार हो गए। लगा, इस बार यह जमीन नंद किशोर सिंह के पुरखों के हाथ से निकल जाएगी। वे लोग भी कम खिलाड़ी नहीं थे, दौड़-धूप कर रुपया जुटाए। बेनी पट्टीवालों ने कहा, रुपए तो जुटा लिये, पर न्योता के भरोसे यज्ञ नहीं होता। अब डाक होगी, डाक। जो ज्यादा बोली बोलेगा, जमीन उसकी होगी। उस समय बोली के बराबर रुपए तो उनके पास होंगे नहीं, कहाँ दौड़ेंगे ? खूब हुमाहुमी हुई। डाक के दिन इनका सबसे होशियार संवांग डोंडा में रुपया बाँधकर गया। बस क्या था, नंद किशोर सिंह के चाचा ने पुकार करनेवाले को दो रुपए दिए, कहा-यदि इन लोगों के नहीं रहने पर हमारी जमीन के डाक का पुकार करोगे तो जिंदगी भर तुम्हारा नाम लेंगे। चपरासी भी कम घाघ नहीं था। उसने कहा-ऐसे नहीं होगा, यदि आप अपने छोटे लड़के की शादी हमारे घर कर देंगे, तो आपकी जमीन बचा दूँगा। फिर क्या था ? हाड़-चाम ठीक था, जाति बिरादरी ठीक ही थी। छब्बीस बीघे जमीन का मामला था, नंद किशोर के चाचा ने हाँ कह दिया।
थोड़ी देर बाद चपरासी आया। नंद किशोर सिंह के चाचा को आँख मारी और कहा-‘‘अरे आप लोग कब तक बिना खाए पिए मरते रहोगे ! अभी तो डाक साहब आए नहीं हैं। जाकर कुछ खा पी लें। तीन बजे के पहले डाक थोड़े होगा। बेनी पट्टीवाले धौंस में आ गए। बाजार में खाना खाने चले गए। जब लौटे तो पता चला कि डाक हो गया। जमीन नंद किशोर सिंह के परिवारवालों की हो गई। बेनी पट्टीवालों को बड़ा दुःख हुआ। नंद किशोर सिंह के खानदान की जमीन जाते-जाते खानदान में रह गई। गाँव आने पर महावीरजी को प्रसाद चढ़ाया। बड़ी धूमधाम से पूजा हुई।’’
‘‘काश्तकार भी कम चालू नहीं थे।’’ कुमार को अचरज हुआ, ‘‘इसमें प्रसाद बाँटने की क्या बात थी ?’’
‘‘क्या, प्रसाद तो मन की खुशी का प्रतीक है। दोहरी खुशी थी। एक तो जमीन खानदान में गई, दूसरे दुश्मन जो सिकंदर जैसा खानदान की धरती पर मँडराने लगा था, परास्त हो गया।’’ मिसिरजी इस वाक्य के साथ ही सब लोग हँस पड़े।
‘‘काश्तकारों में ही दाँवपेंच नहीं होता था’’, अभी हँसी का मुखरित स्वर शांत नहीं हुआ था, मिसिरजी ने कहना शुरू किया, ‘जमींदारों में भी खूब लठनती थी। जमींदार होना गौरव और प्रतिष्ठा की बात थी। जमीन चाहे पाँच सौ बीघे क्यों न हो, यदि रुपए में दो पैसे की भी जमींदारी नहीं हुई तो कुछ नहीं। जमीन का होना तो प्रतिष्ठा की बात थी। पर, हर खाता-पीता काश्तकार सोचता था कि जमींदारी हो जाय। प्रतिवर्ष लोग खरीदने की कोशिश में रहते। मार्च का महीना, मार्च का आखिरी दिन पहलाम का दिन होता था। जमींदारों को कलक्टरी में अपना रिटर्न देना होता था। जमींदारी की लगान भरनी होती थी। यदि मार्च आखिरी दिन तक यह लगान नहीं भरी जाय, जमींदारी की लगान भरनी होती थी। गाँव-गिराँव के छोटे-बड़े जमींदार अपना-अपना रिटर्न देने जिला कार्यालय में जाते थे। बड़ी प्रतीक्षा से यह समय आता था। रिटर्न तो भरा ही जाता, बाँस फाँस में मिश्री जैसे शहर के रंगो-जश्न भी मनाने का मौका मिलता था। ज्यादातर छुटभैए जमींदारों के कारबार देखनेवाले पटवारी ही होते थे। वही रिटर्न और लगान का सारा काम करते थे। जमींदारों के बिगड़े हुए साहबजादों पर तो शहर में पहुँचते ही नशा छा जाता। ज्यादातर लोग पतुरियों के कोठों पर नाच और शराब का आनंद लेने चले जाते। रात तक राग-रंग में डूबे रहते। सुबह पता चलता, लगान के सारे पैसे तो कोठे पर खर्च हो गए या जमींदारी नीलाम हो गई। किसी दूसरे ने खरीद ली। मुकदमा प्रीवी काउंसिल तक पहुँचा था। हर साल कितने लोग बनते और बिगड़ जाते थे।’’
‘‘यह तो भगवान् का न्याय था, दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता था।’’ कुमार ने कहा।
:तीन:
‘प्रखंड विकास कार्यालय’ साहुजी के नए बड़े मकान पर
लगी तख्ती
देखकर जुगनू मिसिर के पाँव चलके ठिठक गए। रुककर पुनः पढ़ा। आषाढ़ की
उन्मत्त, आकस्मिक घटा से उमड़े विचार अभी साफ नहीं हो पाए थे। अनेक बार
मिसिरजी ने शास्त्रार्थ किए थे, ‘द्वार पूजा इति कः
समासः।’
उत्तर आज भी अनिर्णीत था, द्वार की पूजा अथवा द्वार पर होनेवाले वर की
पूजा। वह अनुत्तरित सनातन प्रश्न पुनः गूँजने लगा। विकास तो खंड क्या ?
खंड तो विकास क्या ? विकास समन्वित अविच्छिन प्रक्रिया है। खंड-खंड करके
इसे थोड़े किया जा सकता है और फिर यदि खंड-खंड ही करना था तो इसके साथ
विकास क्यों जोड़ा गया ? द्वंद्व, तत्पुरुष कर्मधारय कौन सी संज्ञा इस
समस्त पद को दी जाय ?
फिर, यह पद विन्यास खंड तक नहीं टिकता। प्रखंड अर्थात् बार-बार खंड करने की या विशेष प्रकार से खंड करने की अभिव्यक्ति करता है। यह भी अस्पष्ट है, किसका खंड करेगा, जमीन का, समाज का, व्यवस्था का या एक ही साथ सबका।’ पाँव आगे बढ़े, विचार अंतश्चेतन के स्तर पर अधिक पसरने लगे। मिसिरजी बाबा की नगरी में जल-धारा चढ़ाने आए थे। जल-धारा के क्रम में ही आस-पास के गाँवों के दो चार भद्र लोगों से मुलाकातें हो जाती हैं। सर-समाचार हो जाता है। साथ-साथ बैठकर चाय पीने की नई बीमारी पनप रही है। किंतु आज तो मिसिरजी को ऐसी भ्रद शब्दावली से भेंट हो गई कि किसी से बात करने में मन ही नहीं रमा। चिंतन की गंभीरता लिये लौट पड़े।
फिर, यह पद विन्यास खंड तक नहीं टिकता। प्रखंड अर्थात् बार-बार खंड करने की या विशेष प्रकार से खंड करने की अभिव्यक्ति करता है। यह भी अस्पष्ट है, किसका खंड करेगा, जमीन का, समाज का, व्यवस्था का या एक ही साथ सबका।’ पाँव आगे बढ़े, विचार अंतश्चेतन के स्तर पर अधिक पसरने लगे। मिसिरजी बाबा की नगरी में जल-धारा चढ़ाने आए थे। जल-धारा के क्रम में ही आस-पास के गाँवों के दो चार भद्र लोगों से मुलाकातें हो जाती हैं। सर-समाचार हो जाता है। साथ-साथ बैठकर चाय पीने की नई बीमारी पनप रही है। किंतु आज तो मिसिरजी को ऐसी भ्रद शब्दावली से भेंट हो गई कि किसी से बात करने में मन ही नहीं रमा। चिंतन की गंभीरता लिये लौट पड़े।
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